मानसरोवरअलग्योझा मुंशी प्रेम चंद
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इस घटना को हुए पाँच साल गुजर गए। पन्ना आज बूढ़ी हो गई है। केदार घर का मालिक है। मुलिया घर की मालकिन है। खुन्नू और लछमन के विवाह हो चुके हैं: मगर केदार अभी तक कंवारा है। कहता हैं— मैं विवाह न करुँगा। कई जगहों से बातचीत हुई, कई सगाइयाँ आयीं: पर उसे हामी न भरी। पन्ना ने कम्पे लगाए, जाल फैलाए, पर व न फँसा। कहता—औरतों से कौन सुख? मेहरिया घर में आयी और आदमी का मिजाज बदला। फिर जो कुछ है, वह मेहरिया है। माँ-बाप, भाई-बन्धु सब पराए हैं। जब भैया जैसे आदमी का मिजाज बदल गया, तो फिर दूसरों की क्या गिनती? दो लड़के भगवान् के दिये हैं और क्या चाहिए। बिना ब्याह किए दो बेटे मिल गए, इससे बढ़कर और क्या होगा? जिसे अपना समझो, व अपना है: जिसे गैर समझो, वह गैर है।
एक दिन पन्ना ने कहा—तेरा वंश कैसे चलेगा?
केदार—मेरा वंश तो चल रहा है। दोनों लड़कों को अपना ही समझता हूँ।
पन्ना—समझने ही पर है, तो तू मुलिया को भी अपनी मेहरिया समझता होगा?
केदार ने झेंपते हुए कहा—तुम तो गाली देती हो अम्मा!
पन्ना—गाली कैसी, तेरी भाभी ही तो है!
केदार—मेरे जेसे लट्ठ-गँवार को वह क्यों पूछने लगी!
पन्ना—तू करने को कह, तो मैं उससे पूछूँ?
केदार—नहीं मेरी अम्मा, कहीं रोने-गाने न लगे।
पन्ना—तेरा मन हो, तो मैं बातों-बातों में उसके मन की थाह लूँ?
केदार—मैं नहीं जानता, जो चाहे कर।
पन्ना केदार के मन की बात समझ गई। लड़के का दिल मुलिया पर आया हुआ है: पर संकोच और भय के मारे कुछ नहीं कहता।
उसी दिन उसने मुलिया से कहा—क्या करुँ बहू, मन की लालसा मन में ही रह जाती है। केदार का घर भी बस जाता, तो मैं निश्चिन्त हो जाती।
मुलिया—वह तो करने को ही नहीं कहते।
पन्ना—कहता है, ऐसी औरत मिले, जो घर में मेल से रहे, तो कर लूँ।
मुलिया—ऐसी औरत कहाँ मिलेगी? कहीं ढूँढ़ो।
पन्ना—मैंने तो ढूँढ़ लिया है।
मुलिया—सच, किस गाँव की है?
पन्ना—अभी न बताऊँगी, मुदा यह जानती हूँ कि उससे केदार की सगाई हो जाए, तो घर बन जाए और केदार की जिन्दगी भी सुफल हो जाए। न जाने लड़की मानेगी कि नहीं।
मुलिया—मानेगी क्यों नहीं अम्मा, ऐसा सुन्दर कमाऊ, सुशील वर और कहाँ मिला जाता है? उस जनम का कोई साधु-महात्मा है, नहीं तो लड़ाई-झगड़े के डर से कौन बिन ब्याहा रहता है। कहाँ रहती है, मैं जाकर उसे मना लाऊँगी।
पन्ना—तू चाहे, तो उसे मना ले। तेरे ही ऊपर है।
मुलिया—मैं आज ही चली जाऊँगी, अम्मा, उसके पैरों पड़कर मना लाऊँगी।
पन्ना—बता दूँ, वह तू ही है!
मुलिया लजाकर बोली—तुम तो अम्माजी, गाली देती हो।
पन्ना—गाली कैसी, देवर ही तो है!
मुलिया—मुझ जैसी बुढ़िया को वह क्यों पूछेंगे?
पन्ना—वह तुझी पर दाँत लगाए बैठा है। तेरे सिवा कोई और उसे भाती ही नहीं। डर के मारे कहता नहीं: पर उसके मन की बात मैं जानती हूँ।
वैधव्य के शौक से मुरझाया हुआ मुलिया का पीत वदन कमल की भॉँति अरुण हो उठा। दस वर्षो में जो कुछ खोया था, वह इसी एक क्षण में मानों ब्याज के साथ मिल गया। वही लवण्य, वही विकास, वहीं आकर्षण, वहीं लोच।